बसंत (Spring) ☘️🍁🍂
सरस सरस सरसों पर झूम रही भ्रामरी;
हरी भरी धरती ने ओढ़ ली है पितांबरी।
शनैः शनैः शांत शीत उष्मता है बढ़ रही,
मंद मंद मलय मन मोहती बसंत बावरी॥
बागों में कोयलों की गूंज रही कुहू कुहू ,
जैसे अपने साँवरे को पुकार रही साँवरी।
वर्षों के बिछड़न वियोग से निकल जैसे,
प्रियतम से मिलने को व्याकुल विभावरी॥
नव पत्र नव पुष्प पा, पेड़-पौधे पुलकित,
कल कल कल हुलसित, गंगा-गोदावरी।
फाग का राग ‘रासि’, घुल रहा चहुं ओर,
हर्षित उल्लासित प्रकृति बन प्रेम बावरी॥
____________✍🏻 @raj_sri
*भ्रामरी – मधुमक्खी,
*पितांबरी – पीला वस्त्र,
*मलय- हवा,
*विभावरी- चाँद तारों सजी रात,
साँझ॰॰॰
आगे बढ़ रहा है ‘सूर्य’, ढल रही धूप संग,
मीलों दौड़ते दौड़ते आराम की तलाश में।
सकुचाई खड़ी निशि अंबर की ड्योढ़ी पे,
लाल हुये गाल लिए मिलने की आश में॥
पंछियों का मधुर शोर गूंज रहा चहुं ओर,
बज रही शहनाई जैसे प्रकृति निवास में।
मंद मंद मुस्कुराती सुरमई पेड़ों की डाली,
आ रही शीतलता भी प्रभाकर प्रकाश में॥
ख़ून ख़ून हुआ लाल विरह के वियोग में,
दिवा का दिल रासि ज़ख़्म के ख़राश से।
और क्यूँ रंगीन हुई जा रही सिंदूरी शामें,
क्या चुरा लिया है रंग इसने ‘पलाश’ से॥
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✍🏻@raj_sri
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*निशि :- रात,
*दिवा :- दिन।
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प्रेम/प्यार 👩❤️💋👨
ना ही कोई मजबूरी है और ना ही ये लाचारी है।
जो ग़र समझ पाओ तो प्यार इक ज़िम्मेदारी है॥
अवसादों में आकंठ अगर तुम डुब चुके हो तो,
हसीं दुनिया से अब अगर तुम ऊब चुके हो तो;
दवाएँ और दुआएँ भी जो हो गये हो बे-असर,
तो ऐसे हाल में तो प्यार ही इलाज-ए-बीमारी है।
एकाकी जीवन के अगर हो गये हो आदी तो,
मेहनतकशी के बदले, बन गये फ़रियादी तो;
जीवन के दोराहे पर बन गये ‘अर्थहीन’ अगर,
तो ऐसे बेक़द्र मौसम में केवल प्यार ही ख़ुद्दारी है।
केवल माशूक़ पे मरना, प्यार नहीं है कहलाता,
देश पर मरना मिटना भी, प्यार ही है कहलाता;
अपने ख़ून से सींचो, अपने वतन की मिट्टी को,
इसी मिट्टी के तुम फूल, ये तुम्हारी फुलवारी है।
भाई बहनों सा दूजा, कोई और नेह नहीं रखता,
माई-बाबा सा दूजा, कोई और स्नेह नहीं करता;
क्या करते हो ‘रासि’ इश्क़, ग़ैरों से अनजानों से,
करो जो इश्क़ अपनों से, इसकी अपनी ही ख़ुमारी है।
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✍🏻@raj_sri
ज़िंदगी का इशारा..
नवम्बर में जन्मी ये दिसम्बर की सर्दी,
जनवरी में अपनी प्रखरता बयां करती।
फ़िज़ाओं में हवाओं को जमा देनेवाली,
माह-ए-फ़रवरी में लगने लगती ढलती॥
ज़िंदगी भी तो अपनी होती है कुछ ऐसी,
नवम्बर-दिसंबर तक उछलती मचलती।
जनवरी सी जवानी में नदी सी उफनती,
फ़रवरी की ठंड जैसी ये चोला बदलती॥
_____________✍🏻@raj_sri
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हमसे तो नहीं होगा॰॰॰
हमसे तो नहीं होगा सुनहरे पिंजरे में बंद रहना।
तोते सा दूसरों का रटा रटाया चंद छंद कहना॥
हमसे तो नहीं होगा ॰॰॰
असहनीय अट्टालिकाओं की उजली धवलता,
आता है अपनी काल-कोठरी का आनंद सहना।
हमसे तो नहीं होगा ॰॰॰
तुम चाहो तो बनो किसी के हाथों की कठपुतली,
दान के ज्ञान से अच्छा बन कर मूसलचंद रहना।
हमसे तो नहीं होगा ॰॰॰
नहीं बनानी आंधियों जैसी अपनी पहचान रासि,
पसंद है मुझको शीतल पवन सा मंद मंद बहना।
हमसे तो नहीं होगा ॰॰॰
________________________✍🏻@raj_sri
*मूसलचंद-अनपढ़, गंवार
किसान.. ??🤔
कल तक था जिनपर नाज़ हमें,
वो ‘सपूत’ ही हमको छल गये।
माँ भारती के चमकते चेहरे पर,
बदनामी के कालिख मल गये॥
क्या इनको कहें हम अन्नदाता,
क्यूँ इनको समझें शुभ चिंतक।
बन कर हमारे ये अभिमान और,
अरमानों को ही वो मसल गये॥
हमने तो सुन रखा था अबतक,
इंसान के भेष में भगवान हैं ये।
मर्यादाओं के प्रतिपालक तुम,
क्यूँ मर्यादा हंता में बदल गये?
ये ‘वो’ किसान नहीं हो सकते,
जिसे देखा सुना है ‘बचपन से।
दुश्मनों के द्यूत-व्यूह में ‘रासि’,
बड़े सहज सहल ये बहल गये॥
✍🏻@raj_sri 😔
हर मौसम अच्छा होता है..!
नहीं होती बरसात तो, कहाँ मिलती हरियाली।
भरी-भरी वसुंधरा भी, रह जाती ख़ाली-ख़ाली॥
बिना शरद ऋतु की रहती, सूनी सूनी फुलवारी।
खेतों में न उगते मोती, ना ही अन्न से होती यारी॥
रोटी-दाल और फलों का देता जग को उपहार।
विषाणु मुक्त कर ग्रीष्म करता हमपर उपकार॥
जल ही जल होता जग में, और डूब जाता भूखंड।
चार माह बाद भी अगर ना, पड़ती धरती पर ठंड॥
ठंड में ठिठुर ठिठुर कर अकड़ जाती ये काया।
अगर न पड़ता जीवन में ग्रीष्म ऋतु का साया॥
पूरे साल गरमी के ताप से हर जीव होता बेहाल।
अगर वर्षा की बूँदें न आ कर, करती हमें निहाल॥
सबकी अपनी अपनी महत्ता, कोई नहीं है कम।
‘रासि’ बुरा नहीं अच्छा भी, होता है हर मौसम॥
✍🏻@raj_sri
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कोरा काग़ज़…
कोरा काग़ज़ पूछ रहा है, अब कौन सी बात लिखूँ।
लोक पसंद बात लिखूँ या मैं अपनी जज़्बात लिखूँ॥
ख़ुशियों की तिलांजलि दी, सदा मैंने अपनों पर।
अपनों ने ही अवरोध लगाई, मेरे सारे सपनों पर॥
दिल दुखाता दिन लिखूँ या, सांसें तोड़ती रात लिखूँ।
कोरा काग़ज़ पूछ रहा है॰॰॰
अपने पल्ला झाड़ चले, जब भी कोई विपदा आई।
ग़ैरों से हिम्मत मिली जब, तब लड़ी जीती लड़ाई॥
ग़ैरों का वो प्रेम लिखूँ या अपनों का आघात लिखूँ।
कोरा काग़ज़ पूछ रहा है॰॰॰
वो जीवन का पहला सावन, जब उनका दीदार हुआ;
मंदिर की मूरत सी सुरत, जिसे देखते हीं प्यार हुआ।
उन हसीं लम्हों को समेटे, वो पहली मुलाक़ात लिखूँ।
कोरा काग़ज़ पूछ रहा है॰॰॰
पर मंज़ूर नहीं था शायद, धरती को ये प्रेम कहानी,
मिलने से पहले ही बिछड़ा, प्यारे बदरा से पानी;
बदरा से बिछोह लिखूँ या, धरती से मुलाक़ात लिखूँ।
कोरा काग़ज़ पूछ रहा है॰॰॰
आज़ादी में लहू बहाये, अब वो परिवार अकेले हैं।
असली परदे में गुम हुए, नक़ली से सजे ये मेले हैं॥
वो बीती ख़ूनी रात लिखूँ या, मैं मौजूदा हालात लिखूँ।
कोरा काग़ज़ पूछ रहा है॰॰॰
होड़ मची है मक्कारी की, हर चेहरे पे कई रंग चढ़े।
अपनी गलती को सभी, अक्सर औरों के सर मढ़े॥
सबकी सोंच जुदा-जुदा, मैं किसके ख़यालात लिखूँ।
कोरा काग़ज़ पूछ रहा है॰॰॰
मातृभूमि का सौदा करते, मातृभूमि के चंद ठेकेदार।
घर की दौलत वहीं लूटते, थे बन बैठे जो पहरेदार॥
अब इसे देशप्रेम लिखूँ या, इनका विश्वासघात लिखूँ।
कोरा काग़ज़ पूछ रहा है॰॰॰
@raj_sri
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हमदर्दी नही चाहिये…
एहसान जताने वाली सरदर्दी नहीं चाहिये।
दर्द दे कर वो तुम्हारी हमदर्दी नही चाहिये॥
हो सके तो सहला दो ज़ख़्मों को मेरे तुम,
इन्हें फिर हरा करे वैसे बेदर्दी नहीं चाहिये।
दर्द दे कर वो तुम्हारी ॰॰॰
ठण्डे रिश्तों को गर्म किया है ब-बमुश्किल,
जम न जाए फिरसे ऐसी सर्दी नही चाहिये।
दर्द दे कर वो तुम्हारी ॰॰॰
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✍🏻@raj_sri
* ब-मुश्किल - बड़ी कठिनाई से
राहत देती कुछ शाम..! 🌅
आँखों को शीतलता देती और अंतस को आराम।
दिनभर की भाग दौड़ से राहत देती है कुछ शाम॥
सुबह मस्त मलँग सा जैसे अलबेला सा बचपन।
दुपहरी जैसे जवानी से ज़िम्मेदारी का गठबंधन॥
ढल ढल कर देती, धूप सुनहरी, बुढ़ापे सी पैग़ाम।
दिनभर की भाग दौड़ से राहत देती है कुछ शाम॥
दिन भर रहते हैं भीड़ में भी हम अक्सर अकेले।
रातों में लग जाते है ‘रासि’ , जज़्बातों के मेले॥
दिन को दो पल चैन नहीं ना ही रातों को आराम।
दिनभर की भाग दौड़ से राहत देती है कुछ शाम॥
✍🏻@raj_sri